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वोटर वेरिफिकेशन में ऑनलाइन से ऑफलाइन तक चुनाव आयोग रोज कर रहा खेला, जान लें क्या हो रहा..


 

**चुनाव आयोग की मतदाता पुनरीक्षण प्रक्रिया में समस्याओं पर संक्षिप्त रिपोर्ट**


चुनाव आयोग की मतदाता पुनरीक्षण प्रक्रिया, जो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों मोड में चल रही है, आम जनता के लिए परेशानियों का सबब बन रही है। पत्रकार रंजीत झा ने अपने लाइव प्रसारण में इस प्रक्रिया की खामियों को उजागर किया है, जिसमें नियमों में बार-बार बदलाव, अस्पष्टता, और दस्तावेजों से संबंधित समस्याएं शामिल हैं। यह रिपोर्ट उनके द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दों का सारांश प्रस्तुत करती है।



सबसे पहले, मतदाता पुनरीक्षण के लिए भरे जाने वाले फॉर्म्स में असमानता देखी गई है। रंजीत झा को उनके विधानसभा क्षेत्र के लिए दो अलग-अलग फॉर्म्स मिले, जिनमें दो अलग-अलग एपिक नंबर दर्ज थे। यह स्थिति उनके लिए आश्चर्यजनक थी, क्योंकि उन्होंने कभी वोटर आईडी बनवाने के लिए कोई केंद्र नहींvisited किया। दूसरी ओर, वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र को पूरी तरह खाली फॉर्म मिला, जबकि चुनाव आयोग ने दावा किया था कि फॉर्म्स आंशिक रूप से भरे हुए (पार्शियली फील्ड) होंगे। यह प्रक्रिया की अव्यवस्था को दर्शाता है।


चुनाव आयोग के 24 जून के नोटिफिकेशन में स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव है। ऑनलाइन और ऑफलाइन प्रक्रियाओं में कई समस्याएं हैं। ऑनलाइन फॉर्म भरने के लिए मोबाइल नंबर का पंजीकरण अनिवार्य है, लेकिन जिन लोगों का नंबर पंजीकृत नहीं है, वे लॉगिन नहीं कर सकते। इसके लिए पहले करेक्शन फॉर्म भरना पड़ता है, जो विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जटिल है। ऑफलाइन फॉर्म्स में भी दिक्कतें हैं, जैसे कि बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) द्वारा फॉर्म्स का वितरण और संग्रह ठीक से न होना। पुष्यमित्र के मामले में, बीएलओ की जगह वार्ड मेंबर का सहयोगी फॉर्म्स बांट रहा था, और उसे बीएलओ की जानकारी तक नहीं थी।


दस्तावेजों की मांग भी एक बड़ा मुद्दा है। चुनाव आयोग आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाण नहीं मानता, लेकिन अन्य दस्तावेजों की सूची स्पष्ट नहीं है। रंजीत ने बताया कि उनके पिता के शैक्षिक प्रमाणपत्र में नाम "कुमार धन जॉय" था, जबकि वोटर आईडी और आधार में "धनंजय कुमार झा" दर्ज है। इस तरह की विसंगतियां दस्तावेज सत्यापन में उलझन पैदा करती हैं। अगर नाम या अन्य विवरण मेल नहीं खाते, तो मतदाता सूची में नाम हटने का खतरा रहता है। 


बीएलओ की भूमिका भी संदिग्ध है। वे फॉर्म्स लेने और सत्यापन करने में लापरवाही बरत रहे हैं। पुष्यमित्र को कोई रसीद नहीं मिली, जिससे यह सवाल उठता है कि अगर उनका नाम सूची से हटाया गया, तो वे दावा कैसे करेंगे। ऑनलाइन अपलोड किए गए दस्तावेजों को भी ऑफलाइन जमा करना पड़ता है, जो प्रक्रिया को और जटिल बनाता है। 


कुल मिलाकर, यह प्रक्रिया जनता को परेशान करने और वोटर लिस्ट से नाम हटाने का एक सुनियोजित प्रयास प्रतीत होता है। नियमों में बार-बार बदलाव, अस्पष्टता, और बीएलओ की गैर-जिम्मेदारी ने आम लोगों को उलझन में डाल दिया है। रंजीत और पुष्यमित्र जैसे अनुभव यह दर्शाते हैं कि चुनाव आयोग की यह प्रक्रिया पारदर्शी और जन-हितैषी नहीं है।

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