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बिहार वोटर लिस्ट 2003 की वेरिफिकेशन का आर्डर गायब? चुनाव आयोग में भागमभाग...



2003 में बिहार मतदाता सूची संशोधन पर चुनाव आयोग के लापता आदेश का रहस्य परिचय

 बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन संशोधन (Special Intensive Revision - SIR) को लेकर चल रही प्रक्रिया ने कई सवाल खड़े किए हैं। इस संशोधन का आधार 2003 में बिहार में तैयार की गई मतदाता सूची है। हालांकि, इस 2003 के संशोधन से संबंधित चुनाव आयोग का आदेश (निर्देश) गायब है, जिसके कारण मौजूदा प्रक्रिया की वैधता और पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं। यह आदेश कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब दे सकता था, जैसे कि 2003 में मतदाताओं से नागरिकता का सबूत मांगा गया था या नहीं, संशोधन की अवधि क्या थी, और इसे क्यों किया गया था। इस लेख में इस मामले को विस्तार से समझाया गया है।


2003 में मतदाता सूची संशोधन का महत्व

2003 में, भारत के चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का गहन संशोधन किया था। इस प्रक्रिया में मतदाता सूची को पूरी तरह से नए सिरे से तैयार किया गया था, जिसमें हर घर की जाकर सत्यापन किया गया। यह संशोधन बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी किया गया था। उस समय के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जेएम लिंगदोह ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया था कि मतदाता सूचियों में कई खामियां थीं, जैसे कि कई नाम गायब थे और कुछ स्थानों पर पूरे मोहल्लों को राजनीतिक दबाव में हटा दिया गया था।

वर्तमान में, 2025 में चल रहे विशेष गहन संशोधन के लिए 2003 की मतदाता सूची को आधार बनाया गया है। जिन मतदाताओं के नाम 2003 की सूची में हैं, उन्हें नागरिकता का सबूत देने की जरूरत नहीं है। लेकिन जिनके नाम इस सूची में नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज जमा करने होंगे। यह प्रक्रिया बिहार के 7.8 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 2.9 करोड़ मतदाताओं को प्रभावित करती है, जो कि कुल मतदाताओं का 37% है।

लापता आदेश का रहस्य चुनाव आयोग के अधिकारियों ने बताया कि 2003 के संशोधन से संबंधित आदेश उनके रिकॉर्ड में नहीं मिल रहा है। दिल्ली में एक चुनाव आयोग के अधिकारी ने स्क्रॉल को बताया कि अगले 10-15 दिनों में भी इस आदेश को ढूंढना मुश्किल है। पूर्व वरिष्ठ चुनाव आयोग के अधिकारी और विपक्षी दलों के नेताओं, जैसे राष्ट्रीय जनता दल के मनोज झा और कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लवरु, ने भी कहा कि उनके पास इस आदेश की प्रति नहीं है। यहां तक कि 2025 के संशोधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले कार्यकर्ताओं के पास भी यह दस्तावेज नहीं है।

2004 के आदेशों से तुलना स्क्रॉल ने 2004 में पांच पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू-कश्मीर में हुए मतदाता सूची संशोधन के दो आदेश प्राप्त किए। इन आदेशों से पता चलता है कि इन संशोधनों में नागरिकता का सबूत मांगने की आवश्यकता नहीं थी और ये प्रक्रियाएं छह महीने की अवधि में पूरी की गई थीं। यह सवाल उठता है कि क्या 2003 में बिहार में भी ऐसी ही प्रक्रिया अपनाई गई थी, या इसमें नागरिकता का सबूत मांगा गया था।
वर्तमान संशोधन और विवाद चुनाव आयोग ने 24 जून 2025 को बिहार में विशेष गहन संशोधन की घोषणा की। इस प्रक्रिया में मतदाताओं को अपनी पात्रता साबित करने के लिए 11 दस्तावेजों में से एक जमा करना होगा। विशेष रूप से, जिनका नाम 2003 की सूची में नहीं है, उन्हें निम्नलिखित दस्तावेज देने होंगे: 1987 से पहले जन्मे लोग: जन्म तिथि या जन्म स्थान का सबूत। 1 जुलाई 1987 से 2 दिसंबर 2004 के बीच जन्मे लोग: जन्म तिथि और स्थान का सबूत, साथ ही एक माता-पिता का जन्म प्रमाण। 2 दिसंबर 2004 के बाद जन्मे लोग: स्वयं के जन्म तिथि और स्थान का सबूत, साथ ही दोनों माता-पिता के जन्म प्रमाण। हालांकि, आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को इन 11 दस्तावेजों की सूची में शामिल नहीं किया गया है, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से पूछा है कि वह आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड जैसे व्यापक रूप से उपलब्ध दस्तावेजों को क्यों स्वीकार नहीं कर रहा है।

विपक्ष का विरोध विपक्षी दलों, विशेष रूप से इंडिया गठबंधन (INDIA bloc) ने इस संशोधन को बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले मतदाताओं को हटाने की साजिश बताया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे "पुरानी साजिश का नया रूप" करार दिया और कहा कि यह बिहार के लोगों का जनादेश चुराने की कोशिश है। राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने इसे बीजेपी की कठपुतली नीति बताया, जिसका उद्देश्य गरीबों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के वोट को हटाना है। 11 विपक्षी दलों ने 2 जुलाई को चुनाव आयोग से मुलाकात कर कहा कि इस प्रक्रिया से 2.5 करोड़ से अधिक मतदाता प्रभावित हो सकते हैं, क्योंकि उनके पास आवश्यक दस्तावेज नहीं हैं।

 तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने इसे बीजेपी के पक्ष में मतदाताओं को हटाने की कोशिश बताया और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट का रुख सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि मतदाता सूची का संशोधन एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो लोकतंत्र और मतदान के अधिकार से जुड़ा है। कोर्ट ने चुनाव आयोग से तीन सवालों पर जवाब मांगा: क्या आयोग को मतदाता सूची संशोधन का अधिकार है? इस प्रक्रिया को कैसे लागू किया जा रहा है? इस संशोधन का समय (चुनाव से ठीक पहले) क्यों चुना गया? कोर्ट ने यह भी कहा कि नागरिकता की जांच गृह मंत्रालय का क्षेत्र है, न कि चुनाव आयोग का।

 कोर्ट ने संशोधन पर रोक लगाने से इनकार किया, लेकिन आयोग से आधार, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को स्वीकार करने पर विचार करने को कहा। चुनाव आयोग का पक्ष चुनाव आयोग ने इस संशोधन को जरूरी बताया है, क्योंकि पिछले 20 वर्षों में तेजी से शहरीकरण और प्रवास के कारण मतदाता सूची में कई बदलाव हुए हैं। आयोग का कहना है कि यह प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत है, जो केवल भारतीय नागरिकों को मतदान का अधिकार देता है। आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन मतदाताओं के पास 25 जुलाई 2025 तक दस्तावेज जमा करने का समय नहीं है, वे 1 अगस्त से 1 सितंबर के बीच दावे और आपत्ति के दौरान दस्तावेज जमा कर सकते हैं।

 चुनौतियां और आलोचनाएं दस्तावेजों की उपलब्धता: बिहार में जन्म पंजीकरण की दर ऐतिहासिक रूप से कम रही है। 2007 में केवल 7.13 लाख जन्म पंजीकृत हुए, जो उस वर्ष के अनुमानित जन्मों का एक-चौथाई था। इससे कई मतदाताओं के लिए जन्म प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज जमा करना मुश्किल है। समय की कमी: संशोधन की समय सीमा (25 जून से 30 सितंबर) को बहुत कम माना जा रहा है, खासकर जब 3 करोड़ मतदाताओं को दस्तावेज जमा करने हैं। हाशिए पर रहने वाले समुदायों पर प्रभाव: गरीब, प्रवासी मजदूर और अल्पसंख्यक समुदायों को दस्तावेज जमा करने में सबसे ज्यादा परेशानी हो सकती है, जिससे बड़े पैमाने पर मताधिकार से वंचित होने का खतरा है।

 पारदर्शिता की कमी: 2003 के आदेश का गायब होना और वर्तमान प्रक्रिया की अस्पष्टता ने संदेह को बढ़ाया है।
 निष्कर्ष 2003 के मतदाता सूची संशोधन से संबंधित चुनाव आयोग का आदेश गायब होना एक गंभीर मुद्दा है, जो मौजूदा विशेष गहन संशोधन की वैधता और निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। विपक्ष और कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह प्रक्रिया गरीब और हाशिए पर रहने वाले मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रहा है और उसने आयोग से अधिक पारदर्शिता और व्यापक रूप से उपलब्ध दस्तावेजों को स्वीकार करने की मांग की है। बिहार में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले इस प्रक्रिया का परिणाम न केवल बिहार के मतदाताओं, बल्कि पूरे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है।

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