The Samachar Express

CJI गवई का तहलका, खोल डाली राष्ट्रपति से जुड़े केस की टॉप फ़ाइल, President Murmu ने दी थी Supreme Court को चुनौती


**राष्ट्रपति बनाम सुप्रीम कोर्ट: संवैधानिक समय सीमा पर छिड़ी जंग** *रंजीत झा* परिचय भारत के संवैधानिक ढांचे में एक नया और ऐतिहासिक अध्याय शुरू हो चुका है, जो राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और विधायिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण और संवैधानिक अधिकारों की व्याख्या से जुड़ा है। हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर 14 सवाल उठाए, जिसमें कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने की समय सीमा तय की थी। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ के सामने है, जिसकी सुनवाई 22 जुलाई 2025 से शुरू होने जा रही है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम इस मामले की गहराई में जाएंगे, इसके संवैधानिक निहितार्थों, राष्ट्रपति के सवालों, और इसकी सुनवाई के महत्व को समझेंगे। Watch Video : CJI गवई का तहलका, खोल डाली राष्ट्रपति के केस की टॉप फ़ाइल, बड़े वकीलों को भी भेज दिया अल्टीमेटम
मामले की पृष्ठभूमि यह विवाद तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच हुए टकराव से शुरू हुआ। तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने 2020 और 2023 के बीच विधानसभा द्वारा पारित 12 विधेयकों को लंबित रखा था, जिसके खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास वीटो का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होगा।

 इसके साथ ही, कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति को भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर उस पर निर्णय लेना होगा। इस फैसले ने न केवल राज्यपालों की शक्तियों पर सवाल उठाए, बल्कि राष्ट्रपति की भूमिका और संवैधानिक विवेक को भी चुनौती दी। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस फैसले को संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के खिलाफ बताते हुए सुप्रीम कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 सवालों पर राय मांगी। यह प्रावधान राष्ट्रपति को लोकहित में सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने का अधिकार देता है, और इसका उपयोग बहुत कम होता है।

 **राष्ट्रपति के 14 सवाल** राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से जो 14 सवाल पूछे हैं, वे न केवल राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से जुड़े हैं, बल्कि संविधान के मूल ढांचे, शक्तियों के पृथक्करण, और संघीय ढांचे की व्याख्या को भी प्रभावित करते हैं। 

ये सवाल इस प्रकार हैं: 1. संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास विधेयक पर क्या-क्या विकल्प उपलब्ध हैं? 
 2. क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना अनिवार्य है?
 3. क्या राज्यपाल की संवैधानिक विवेकाधीन शक्ति को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है? 
 4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल की कार्रवाइयों पर न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण रोक लगाता है?
 5. क्या राज्यपाल की शक्तियों पर समय सीमा और प्रक्रिया को न्यायालय तय कर सकता है?
 6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्ति को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है? 
 7. क्या राष्ट्रपति की शक्तियों पर समय सीमा और प्रक्रिया को न्यायालय लागू कर सकता है?
 8. क्या राष्ट्रपति को विधेयक को न्यायालय में संदर्भित करने से पहले सलाह लेनी होगी?
 9. क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के अनुच्छेद 201 के तहत फैसले न्यायालय में चुनौती देने से पहले कानूनी माने जा सकते हैं?
 10. क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के आदेशों को अनुच्छेद 142 के तहत चुनौती दी जा सकती है?
 11. क्या राज्य विधानमंडल का विधेयक बिना राज्यपाल की मंजूरी के कानून माना जाएगा? 
 12. क्या अनुच्छेद 145(3) के तहत हर मामले को पांच जजों की पीठ को भेजना अनिवार्य है?
 13. क्या अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय केवल प्रक्रियागत निर्देश दे सकता है? 
 14. क्या संविधान, संघ और राज्य के बीच विवाद को केवल अनुच्छेद 131 के जरिए ही सुलझाया जा सकता है? 

 **संवैधानिक टकराव: सुप्रीम कोर्ट बनाम कार्यपालिका** सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल का फैसला, जिसके तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समय सीमा तय की गई थी, ने संवैधानिक शक्तियों के बीच एक बड़ा टकराव पैदा कर दिया। कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए यह तर्क दिया कि यदि विधेयक लंबे समय तक लंबित रहता है, तो उसे स्वतः मंजूरी प्राप्त मान लिया जाएगा। इस "डीम्ड असेंट" की अवधारणा को राष्ट्रपति ने संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ बताया और इसे कार्यपालिका की शक्तियों को सीमित करने वाला कदम करार दिया। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने भी इस फैसले पर कड़ी आपत्ति जताई। धनखड़ ने कहा कि संविधान ने ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की थी जहां सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे। उन्होंने अनुच्छेद 142 को "लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ परमाणु मिसाइल" तक करार दिया। बीजेपी का तर्क है कि यह फैसला संसद की सर्वोच्चता को कमजोर करता है और कार्यपालिका के संवैधानिक अधिकारों में हस्तक्षेप करता है।

 **विपक्षी राज्यों की प्रतिक्रिया** विपक्षी दलों, विशेष रूप से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस मामले में केंद्र सरकार और राष्ट्रपति के रुख की कड़ी आलोचना की है। स्टालिन ने पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, केरल, झारखंड, पंजाब और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट रेफरेंस का विरोध करने की अपील की। उनका तर्क है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला गैर-बीजेपी शासित राज्यों की स्वायत्तता और विधायी शक्तियों की रक्षा करता है। स्टालिन ने इसे संवैधानिक ढांचे को कमजोर करने का प्रयास बताया। 

22 जुलाई की सुनवाई: क्या होगा अंजाम? 

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ, जिसकी अध्यक्षता चीफ जस्टिस बीआर गवई करेंगे, इस मामले की सुनवाई 22 जुलाई 2025 से शुरू करेगी। इस पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर शामिल हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि इस मामले में कोई स्थगन स्वीकार नहीं किया जाएगा और सभी पक्षकारों को तत्काल बहस के लिए तैयार रहना होगा। 

इस सुनवाई में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार किया जाएगा:

क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकता है? - 

क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए समय सीमा तय करना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है? - 

क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसले न्यायिक समीक्षा के दायरे में आते हैं? - क्या "डीम्ड असेंट" की अवधारणा संवैधानिक व्यवस्था के अनुकूल है? 

कानूनी विशेषज्ञों की भूमिका इस मामले में कई वरिष्ठ अधिवक्ता जैसे कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता शामिल हो सकते हैं। तमिलनाडु जैसे विपक्षी शासित राज्य और केंद्र सरकार दोनों इस मामले में हस्तक्षेप कर सकते हैं। कोर्ट ने सभी पक्षों को बिना स्थगन के बहस के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया है, जिससे यह सुनवाई और भी गंभीर हो जाती है। 

 **संभावित परिणाम और निहितार्थ**

 यह मामला भारत के संवैधानिक ढांचे के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है। यदि सुप्रीम कोर्ट अपने मूल फैसले को बरकरार रखता है, तो यह कार्यपालिका की शक्तियों पर एक बड़ा अंकुश होगा और विपक्षी शासित राज्यों को राहत मिलेगी। वहीं, यदि कोर्ट राष्ट्रपति के सवालों के पक्ष में फैसला देता है, तो यह कार्यपालिका की स्वायत्तता को मजबूत करेगा, लेकिन विपक्षी राज्यों के लिए यह एक झटका हो सकता है। इसके अलावा, यह मामला संवैधानिक शक्तियों के पृथक्करण और संघीय ढांचे की बहस को और गहरा करेगा। सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या यह तय करेगी कि क्या संविधान की आत्मा कार्यपालिका की स्वतंत्रता में निहित है या विधायिका की सर्वोच्चता में।

 **निष्कर्ष** राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उठाए गए 14 सवाल और सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई भारत के लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षा है। यह मामला न केवल संवैधानिक शक्तियों की सीमाओं को परिभाषित करेगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि भारत का संघीय ढांचा और शक्तियों का पृथक्करण किस दिशा में बढ़ेगा। चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई में होने वाली यह सुनवाई न केवल कानूनी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से भी ऐतिहासिक होगी। इस मामले का परिणाम न केवल राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियों को प्रभावित करेगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि भारत में सुप्रीम कौन है - संविधान, संसद, कार्यपालिका, या सुप्रीम कोर्ट।

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने