## सुप्रीम कोर्ट में अली खान महमूदाबाद की याचिका: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जांच की सीमाएं
16 जुलाई 2025 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक बेहद महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई हुई, जिसमें अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद द्वारा दायर याचिका पर विचार किया गया। यह मामला ‘ऑपरेशन सिंदूर’ विषय पर उनकी सोशल मीडिया पोस्ट्स के खिलाफ दर्ज दो एफआईआर से संबंधित था। इस सुनवाई ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जांच एजेंसियों की सीमाएं और न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता जैसे बुनियादी मुद्दों को उजागर किया।
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मामला क्या है?
प्रो. महमूदाबाद ने दो पोस्ट—8 और 11 मई 2025 को अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर किए थे, जिनमें भारत की विदेश नीति की प्रशंसा की गई थी, विशेष रूप से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को लेकर। इन पोस्ट्स को लेकर दो FIR दर्ज की गईं, आरोप यह था कि उन्होंने “देशविरोधी” विचार व्यक्त किए। हालांकि, पोस्ट्स सार्वजनिक रूप से देखे जा सकते थे और उनमें किसी भी प्रकार की भड़काऊ या आपत्तिजनक भाषा नहीं थी।
28 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक SIT (Special Investigation Team) गठित की, जिसका कार्य सीमित रूप से इन दोनों पोस्ट्स की भाषा और सामग्री की जांच करना था। लेकिन जब सुनवाई शुरू हुई, तो यह स्पष्ट हुआ कि SIT ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए प्रोफेसर के डिवाइस जब्त कर लिए और उनसे पिछले दस वर्षों के यात्रा रिकॉर्ड की मांग की।
कोर्ट की कार्यवाही में क्या हुआ?
सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि उनका मुवक्किल निर्दोष है और SIT की कार्रवाई न्यायालय के पूर्व आदेश का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि जांच केवल दो पोस्ट्स तक सीमित रहनी चाहिए थी, लेकिन अब यह ‘रोविंग इनक्वायरी’ यानी व्यापक तलाशी में तब्दील हो गई है।
जस्टिस सूर्यकांत ने स्पष्ट रूप से सवाल उठाया कि क्या SIT जांच की सीमाओं से बाहर जा रही है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि टीम को कुछ गंभीर अपराध की जानकारी मिलती है, तो वे नए मामले दर्ज कर सकती हैं, लेकिन मूल याचिका केवल दो पोस्ट्स तक सीमित रहेगी। उन्होंने ASG (अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल) एसवी राजू से पूछा कि SIT ने डिवाइस जब्त क्यों किए।
राजू ने तर्क दिया कि SIT स्वतंत्र रूप से कार्य कर रही है और यदि जांच के दौरान गंभीर अपराध की संभावना दिखे, तो कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि “भरोसा ठीक है, लेकिन अंतिम फैसला न्यायालय को करना है।”
### आदेश का सार
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि:
- जांच केवल 8 और 11 मई के पोस्ट्स तक सीमित रहेगी।
- SIT को चार हफ्ते का समय दिया गया है रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए।
- याचिकाकर्ता को दोबारा पूछताछ के लिए नहीं बुलाया जाएगा।
- फोरेंसिक रिपोर्ट की समीक्षा की जाएगी।
- अंतरिम संरक्षण (protection from arrest) जारी रहेगा।
### संवैधानिक और सामाजिक महत्व
यह मामला कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है:
#### 1. **अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता**
भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। जब सोशल मीडिया पर दिए गए बयान, जो कि शांतिपूर्ण और तार्किक हैं, आपराधिक जांच का विषय बन जाएं, तो यह इस मौलिक अधिकार के हनन की ओर संकेत कर सकता है।
#### 2. **जांच एजेंसियों की सीमाएं**
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जांच एजेंसियों को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं जाना चाहिए, खासकर जब मामला न्यायालय के निगरानी में हो। यह कार्यपालिका की शक्ति और न्यायपालिका की निगरानी के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक अहम कदम है।
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#### 3. **शैक्षणिक स्वतंत्रता का संरक्षण**
चूंकि महमूदाबाद एक प्रोफेसर हैं, यह मामला उच्च शिक्षा में स्वतंत्र विचारों की सुरक्षा से भी जुड़ा है। विश्वविद्यालयों में विचारों की अभिव्यक्ति को दबाना शिक्षा की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
### आगे की राह
कोर्ट द्वारा दिए गए चार हफ्तों में SIT को रिपोर्ट प्रस्तुत करनी है, जिससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि क्या पोस्ट्स में कोई आपराधिक तत्व मौजूद थे या नहीं। इसके परिणाम न केवल इस मामले पर असर डालेंगे, बल्कि देशभर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सोशल मीडिया की निगरानी को लेकर एक मिसाल कायम कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह सुनवाई सिर्फ एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक बहस है—जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता का अधिकार और जांच की पारदर्शिता एक-दूसरे से टकरा रहे हैं। इस सुनवाई का तरीका—जिसमें हंसी भी थी, संवेदनशीलता भी—ने एक बात तो साफ कर दी: भारत का न्यायालय ना केवल कानून का पालन करवाता है, बल्कि स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा भी करता है।