🧿 क्या भारतीय न्यायपालिका जवाबदेही से दूर आत्मरक्षा तंत्र बनती जा रही है?
✍️ लेखक: रंजीत झा | दी समाचार एक्सप्रेस
भारतीय लोकतंत्र की आत्मा — न्यायपालिका — क्या सचमुच अब केवल अपने लोगों को बचाने का तंत्र बन चुकी है? जब एक रिटायर्ड जज के खिलाफ FIR दर्ज हो और फिर अदालतें ही उन्हें दोषमुक्त घोषित कर दें, तो सवाल उठते हैं — न्याय किसके लिए है?
Watch Video : हाईकोर्ट जज पर पुलिस ने दर्ज कर दिया FIR, सुप्रीम कोर्ट में केस जाते ही जो हुआ...
🔎 न्यायपालिका पर लगे सवालों की पड़ताल
हाल ही में केरल हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज, जस्टिस सी.एन. रामचंद्रन नायर, पर CSR फंड में लाखों की ठगी के मामले में नामजद किया गया। FIR में उनका नाम आया, ट्रस्ट का ट्रस्टी होने का दावा हुआ — लेकिन नतीजा? कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं है और FIR से नाम हटा दिया गया।
क्या यह मामला केवल एक जज की निर्दोषता का है या उस सिस्टम की, जो अपने लोगों को बचाने के लिए हर सवाल को दबा देता है?
🧮 तथ्य और विरोधाभास
- FIR में जस्टिस नायर का नाम तीसरे आरोपी के तौर पर दर्ज हुआ।
- उन्होने कहा कि वो केवल सलाहकार थे, ट्रस्टी नहीं — और इस्तीफा भी पहले ही दे चुके थे।
- कोर्ट ने कहा, उनके खातों में कोई पैसा नहीं गया, कोई भूमिका नहीं पाई गई।
- लेकिन याचिकाकर्ता का दावा था कि ट्रांजेक्शन पर उनके दस्तखत मौजूद थे।
📚 न्यायालयों की प्रतिक्रियाएं
🏛️ केरल हाई कोर्ट का दृष्टिकोण:
अदालत ने यह मान लिया कि एक पूर्व जज की प्रतिष्ठा को बिना पर्याप्त जांच के आघात पहुँचना न्यायपालिका के लिए नुकसानदायक है।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ:
सुनवाई के दौरान सवाल उठे कि क्या याचिका बदले की भावना से भरी थी? आखिर में कोर्ट ने FIR से नाम हटाने के हाई कोर्ट के आदेश को सही ठहराया।
❓ अब भी बचे सवाल
- क्या “पैसा उनके खाते में नहीं आया” ही निर्दोषता की गारंटी है?
- क्या एक ट्रस्टी की भूमिका सिर्फ शोपीस थी?
- क्या उनके दस्तखत किसी भूमिका की पुष्टि नहीं करते?
- क्या न्यायपालिका में सवाल उठाना “प्रतिशोध” कहलाने लगा है?
- क्या जजों को जवाबदेही से ऊपर मान लिया गया है?
🤝 सत्ता और न्याय का संबंध
मुन्नमबम लैंड इंक्वायरी कमीशन में जस्टिस नायर की नियुक्ति और उस पर उठे सवाल फिर एक नई बहस को जन्म देते हैं — क्या सत्ता और न्याय के बीच कोई गठजोड़ है?
🧠 निष्कर्ष: एक संवाद की ज़रूरत
यह कहानी केवल एक जज की नहीं है, बल्कि उस पूरे सिस्टम की है जहां जवाबदेही की जगह संरक्षणवाद ने ले ली है। क्या हमें अब न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर एक खुली, निष्पक्ष बहस की आवश्यकता नहीं है?
🗣️ आप क्या सोचते हैं? क्या अब जजों को भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए? अपने विचार कमेंट में ज़रूर साझा करें — क्योंकि सवालों का सिलसिला कभी नहीं रुकता।